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खमीर

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खमीर

खमीर एक कवक है। यह शर्करायुक्त कार्बनिक पदार्थ में बहुतायत से पाये जाने वाला विशेष प्रकार का कवक है। यह फूल विहीन पौधा है। इसका शरीर मूल, तना एवं पत्ति में विभक्त नहीं होता है। इसकी लगभग १५०० जातियाँ हैं।[1]

साधारण व्यक्ति को यीस्ट से उस वस्तु का बोध होता है जिसे बनाने वाले गूँदे आटे में डालकर, उसे उठने और स्पंजी बनाने के लिये छोड़ देते हैं। ऐसे स्पंजी आटें ही स्पंजी पावरोटी बनती हैं। ऐसे यीस्ट साधारणतया टिकिये के रूप में बाजारों में बिकतें हैं। ऐसे यीस्ट से बड़े सूक्ष्म एककोशिक पादप रहते हैं। ये ही वास्तविक यीस्ट, या साक्खारोमिकेस् (saccharomyces), है। यीस्ट वस्तुत: एक वर्ग का पादप हैं। यह कवकों (fungus) से समानता रखता हैं।

यीस्ट वायु में सर्वत्र प्रचुरता से पाया जाता हैं। यह उष्णता, आर्द्रता और आहार के अभाव में जीवित रह सकता हैं और इसकी कार्यशीलता बनी रहती हैं। पर 100 डिग्री से0 पर आर्द्र ऊष्मा से यह नष्ट हो जाता हें। यह किणवन उत्पन्न करता हैं। इसी से इसका व्यवहार पावरोटी, सुरा या बीअर आदि बनाने में हजारों वर्षां से चला आ रहा हें, यद्यिप ऐसा होने के कारण का पता पहले पहल कगनार्ड डेलातूर (1771- 1857 ई0) ने ही लगाया था। उन्होंनें ही सिद्ध किया था कि यीस्ट सजीव पादप हैं, जो मुकुलन (buddinng) प्रक्रिया से बढ़ता हैं। कार्बनिक पदार्थो, विशेषत: स्टार्च और शर्कराओं में, यीस्ट से किणवन होता हैं। यीस्ट कोशिकाओं की वृद्धि के साथ साथ उनसे एंजाइम बनते हैं। ये एजाइम डायास्टेस, इंवर्टेंस (Æinvertase) और जाइमेस (zymase) हैं। डायास्टेस स्टार्च को विघटित करता, इनवर्टेस ईक्षुशर्करा को ग्लूकोज़ और फ्रक्टोज में परिणत करता और जाइमेस ग्लूकोज़ और फ्रक्टोज शर्कराओं को ऐल्कोहॉल और कार्बन डाइऑक्साइड में परिणत करता हैं। ये सब प्रक्रियाएँ उपयुक्त अवस्था (उपयुक्त आर्द्रता और ताप) में संपन्न होती हैं। किणवन का उपयुक्त ताप 25 डिग्री - 30 डिग्री सें0 हैं।

व्यापार का यीस्ट दो प्रकार का होता है, एक शुष्क और दूसरा संपीडित। यीस्ट को मकई के आटे या स्टार्च के साथ मिलाकर टिकिया बनाई जाती है और तब उसे सुखाया जाता है। यही शुष्क यीष्ट है। इस रूप में यीस्ट निष्क्रिय या प्रसुप्त रहता है और बहुत काल तक सुरक्षित रखा जा सकता हैं। उपयुक्त पदार्थो के साथ मिलाने से यह सक्रिय हो जाता है और तब इससे काम लिया जाता है। संपीडित यीस्ट में प्रर्याप्त स्टार्च और आर्द्रता रहती है। इससे किणवन अल्प समय में होता है। यह यीस्ट अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है। सुरक्षित रखने के लिये किसी ठंढे स्थान में रखना आवश्यक होता है। कुछ व्यक्ति अपने काम के लिये स्वयं अपना यीस्ट तैयार करते है। इसके लिये अनाज के दानों, विशेषत: जौ के दानों को पानी में भिंगाकर रखते हैं। इससे दाने अंकुरने लगते हैं। अंकुरने के बाद उसमें लैथ्क्टक अम्ल बनानेवाला बैक्टीरिया मिलाकर, अम्लीय बनाते हैं। अम्लीय बनाने का उद्देश्य उसे सड़ने से रोका होता है। इस प्रकार से प्राप्त पदार्थ यीस्ट के आहार का काम देता है। अब इसमें यीस्ट बीज डालकर किणवन के लिये छोड़ देते हैं। ताप स्थिर रखते हैं। इससे किणवन जल्द संपन्न होता है। अब उसे फिल्टर प्रेस में छानकर अलग रखते हैं। उसमें स्टार्च मिलाकर, दबाकर बड़ी बड़ी टिकिया बनाते हैं। इसके काटने से छोटी छोटी टिकियाँ प्राप्त होती हैं। अब स्टार्च के स्थान में मकई के आटे का व्यवहार होने लगा है।

पावरोटी, नाना प्रकार की मदिरा, ब्रांडी, हस्की, रम, बीअर आदि के बनाने में यीस्ट का व्यवहार होता है। औषधियों में इसका व्यवहार प्राचीन काल से होता आ रहा है। कोष्ठबद्धता, चर्मरोग, जठरांत्र रोगों में यीस्ट के लाभकारी सिद्ध होने का दावा किया जाता है।

सन्दर्भ

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  1. Kurtzman, C.P., Fell, J.W. 2006. "Yeast Systematics and Phylogeny — Implications of Molecular Identification Methods for Studies in Ecology." Archived 2008-02-22 at the वेबैक मशीन, Biodiversity and Ecophysiology of Yeasts, The Yeast Handbook, Springer. Retrieved January 7 2007.

बाहरी कड़ियाँ

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