यशोवर्मन (कन्नौज नरेश)
।यशोधर्मन की उत्पत्ति और प्रारंभिक इतिहास के विषय में कुछ नहीं ज्ञात है। उनके एक अभिलेख में उन्हें औलख/औलिकर (जाट)' वंश का कहा गया है। इस वंश के लोग पाँचवीं शताब्दी के मध्य में गुप्त साम्राज्य के सामन्त के रूप में मालवा पर शासन कर रहे थे। किन्तु उसके बाद लगभग सौ वर्षो के लिये इस वंश की कोई सूचना नहीं मिलती। गुप्तों की शक्ति क्षीण हो चली थी। वाकाटकों और हूणों के आक्रमण के कारण मालवा की राजनीतिक दशा अस्थिर थी। ऐसे में यशोधर्मन् जैसे महत्वाकांक्षी और योग्य व्यक्ति के लिये अपना प्रभाव बढ़ाना सरल था।
यशोधर्मन् के विषय में हमारा ज्ञान मंदसौर से प्राप्त उसके दो अभिलेखों तक ही सीमित है। एक अभिलेख में कहा गया है कि उसका प्रभुत्व लौहित्य (ब्रह्मपुत्र) से महेंद्र पर्वत (गंजाम जिला) तक और हिमालय से पश्चिमी सागर तक फैला था। यह विवरण परंपरागत दिग्विजय का है। इन प्रशस्तियों में अतिशयोक्ति का अंश अवश्य होगा किंतु इस प्रकार के दावे नितांत निराधार नहीं कहे जा सकते। अभिलेख में यह भी कहा गया है कि असका अधिकार उन प्रदेशों पर भी था जो गुप्त राजाओं और हूणों के भी अधिकार में नहीं थे। उसके प्रांतपाल अभयदत्त के अधिकार में विंध्य और पारियात्र के बीच का प्रदेश था जो अरब सागर तक फैला था। इस विस्तृत साम्राज्य की विजय के संबंध में उसने किन किन राजवंशों को पराजित किया, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। अभिलेख में उसके द्वारा पराजित शत्रुओं में केवल मिहिरकुल का हो नाम दिया गया है।
गुप्त नरेश बालादित्य ने भी मिहिरकुल को पराजित किया था। इस घटना के साथ यशोधर्मन् के कृत्यों को कालक्रम में रखना कठिन है। यशोधर्मन् और बालदित्य की विजय एक ही घटना है, अथवा यशोधर्मन् ने बालादित्य के सामंत के रूप में ही मिहिरकुल को पराजित कर बाद में अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित की, या मिहिरकुल दो स्थानों पर पराजित हुआ- पश्चिम में यशोधर्मन् और पूर्व में बालादित्य के द्वारा या वह पहले यशोर्ध्मन् और उसके बाद बालादित्य के हाथों पराजित हुआ आदि संभावनाओं में से किसी एक को निश्चयात्मक बतलाना संभव नहीं। युवान् च्वाड़् के अनुसार बालादित्य के हाथों पराजित होने पर भी मिहिरकुल ने अपना सिर झुकाना नहीं स्वीकार किया और कश्मीर में जाकर अपना अधिकार स्थापित किया। यदि इससे मंदसोर अभिलेख में मिहिरकुल के वर्णन की समानता देखी जाय तो कहा जा सकता है कि मिहिकुल की द्वितीय पराजय यशोधर्मन् के ही हाथों हुई थी। शक्तिशाली हूणों और गुप्तों को पराजित करना यशोधर्मन् की प्रमुख उपलब्धियाँ थी। उसका उत्कर्ष काल 528 ई0 के बाद था। किंतु उसकी विजय स्थायी नहीं रह सकीं। 543 ई0 में हमें यशोधर्मन् के प्रभुत्व का कोई प्रभाव शेष नहीं मिलता। फिर भी उसका यह महत्व अवश्य था कि उसने अपने उदाहरण से अन्य सामंतों को उत्साहित किया जिनकी बढ़ती शक्ति और तज्जनित संघर्ष के फलस्वरूप गुप्त साम्राज्य छिन्न भिन्न हो गया।
उसने राजधिराजपरमेश्वर और सम्राज्ट की उपाधि धारण की थी। वह शिव का भक्त था। अभिलेख में उसके अच्छे शासन और उसके सदगुणों के कई उल्लेख हैं। उसकी तुलना मनु, भरत, अलर्क और मांधाता से की गई है। कि अपने समय में ही उसे विशेष गौरव प्राप्त हुआ था।
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