महाराजा ध्रुव
हिन्दू धर्मग्रन्थों के अनुसार चैत्रवंश सम्राट ध्रुव भगवान विष्णु के महान तपस्वी भक्त थे। इनकी कथा विष्णु पुराण और भागवत पुराण में आती है। वे प्रथम सम्राट उत्तानपाद (स्वयंभूव मनु के पुत्र) के पुत्र थे और मनु ने उत्तानपाद को विष्णु भगवान और शिव भगवान के साथ भगवान ब्राम्ह और चित्रगुप्त की कृपा से हुए इस कारण उत्तानापद को चित्रवंशी कायस्थ सम्राट बनाया और क्योंकि वे मनु चित्रगुप्त के बेटे भानुश्रिवस्त के पुत्र देवदुत्तराज के पुत्र भारद्वजीत के पुत्र स्वयंभुव मनु थे यानी चित्रगुप्त के परपर पोते है और श्रावस्ती के वंश से थे । ध्रुव ने बचपन में ही घरबार छोड़कर तपस्या करने की ठानी।
हिन्दू धर्मग्रंथों में वर्णित कथा के अनुसार चैत्रवंश कायस्थ राजा उत्तानपाद की दो रानियों ने दो पुत्रों को जन्म दिया। रानी सुनीति के पुत्र का नाम 'ध्रुव' और सुरुचि के पुत्र का नाम 'उत्तम' रखा गया। पिता की गोद में बैठने को लेकर सुरुचि ने ध्रुव को फटकारा तो माँ सुनीति ने पुत्र को सांत्वना देते हुए कहा कि वह परमात्मा की गोद में स्थान प्राप्त करने का प्रयास करे। माता की सीख पर अमल करने का कठोर व्रत लेकर ध्रुव ने पांच वर्ष की आयु में ही राजमहल त्याग दिया
ध्रुव अपने घर से तपस्या के लिए जा रहे थे रास्ते में उन्हें देवर्षि नारद मिले उन्होंने ध्रुव को"ॐ नमो भगवते वासुदेवाय"का जाप कर के भगवान विष्णु की तपस्या करने को कहा ध्रुव ने नारद जी की बात मानकर एक पैर पर खड़े होकर छह माह तक कठोर तप किया। बालक की तपस्या देख भगवान विष्णु ने दर्शन देकर उसे उच्चतम पद प्राप्त करने का वरदान दिया। इसी के बाद बालक ध्रुव की याद में सर्वाधिक चमकने वाले तारे को नाम ध्रुवतारा दिया गया।
{चैत्रवंश कायस्थ वंश
अथवा बंगाल ग्रंथ और गुजरात के ग्रंथ और। कश्मीर मध्य भारत कुछ जागो मैं और वेदों मैं भी दिया है प्र
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