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उद्यान विज्ञान

फूल ही फूल

बागवानी या उद्यान विज्ञान (Horticulture; हॉर्टिकल्चर) उद्यान विज्ञान कृषि विज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत फल फूल सब्जी तथा औषधि फसलों को उगाने का अध्ययन किया जाता है।। (Term horticulture derived from Two Latin word (1) Hortus (2) cultura means Garden.management. Definition- horticulture is an art or science that deals with the study of Olericulture,floriculture, pomology, medicinal crop aeromatic crop or plantation crop. Father of Horticulture (Thomas Andrew knight). Father of India Horticulture (M.H.Marigowada).

बागवानी से सम्बन्धित क्रियाएँ

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Man wearing protective equipment and spraying pesticides

उद्यानविज्ञान में सबसे महत्त्व का कार्य है अधिक से अधिक संख्या में मनचाही जातियों के पादप उगाना। उगाने की दो विधियाँ हैं- लैंगिक (सेक्सुअल) और अलैंगिक (असेक्सुअल)।

लैंगिक प्रजनन

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बीज द्वारा फूल तथा तरकारी का उत्पादन सबसे साधारण विधि है। यह लैंगिक उत्पादन का उदाहरण है। फलों के पेड़ों में इस विधि से उगाए पौधों में अपने पिता की तुलना में बहुधा कुछ न कुछ परिवर्तन देखने में आता है। इसलिए पादपों की नवीन समुन्नत जातियों का उत्पादन (कुछ गौण विधियों को छोड़कर) लैंगिक विधि द्वारा ही संभव है।

पादपों के अंकुरित होने पर निम्नलिखित का प्रभाव पड़ता है : बीज, पानी, उपलब्ध ऑक्सीजन, ताप और बीज की आयु तथा परिपक्वता।

अंकुरण के सहायक - अधिकांश बीज उचित रीति से बोने पर बड़ी सरलता से अंकुरित होते हैं, किंतु कुछ ऐसी जाति के बीज होते हैं जो बहुत समय में उगते हैं। प्रयोगों में देखा गया है कि एनज़ाइमों के घोलों में बीजों को कई घंटों भिगों रखने पर अधिक प्रतिशत बीज अंकुरित होते हैं। कभी-कभी बीज के ऊपर के कठोर अस्थिवत् छिलकों को नरम करने तथा उनके त्वक्छेदन के लिए रासायनिक पदार्थों (क्षीण अम्ल या क्षार) का भी प्रयोग किया जाता है। झड़बरी (ब्लैकबेरी) या रैस्पबेरी आदि के बीजों के लिए सिरका बहुत लाभ पहुँचाता है। सल्फ़्यूरिक अम्ल, 50 प्रतिशत अथवा सांद्र, कभी-कभी अमरूद के लिए प्रयोग किया जाता है। दो तीन से लेकर बीस मिनट तक बीज अम्ल में भिगो दिया जाता है। स्वीट पी के बीज को, जो शीघ्र नहीं जमता, अर्धसांद्र सल्फ़्यूरिक अम्ल में 30 मिनट तक रख सकते हैं। यह उपचार बीज के ऊपर के कठोर छिलके को नरम करने के लिए या फटने में सयहायता पहुँचाने के लिए किया जाता है। परंतु प्रत्येक दशा में उपचार के बाद बीज को पानी से भली भॉति धो डालना आवश्यक है। जिन बीजों के छिलके इतने कठोर होते हैं कि साधारण रीतियों का उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता उनके लिए यांत्रिक सहायता लेनी चाहिए। बहुधा रेतने, मुतरने या छेद करने का भी प्रयोग (जैसे बैजंतीउकैना में) किया जाता है। बोए जाने पर बीज संतोषप्रद रीति से उगें, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह जानना आवश्यक है कि किस बीज को किस समय बोना चाहिए। कुछ बीजों के उगने में बहुत समय की आवश्यकता होती है या वे विशेष ऋतु में उगते हैं और इससे पहले कि वे उगना प्रारंभ करें, लोग बहुधा उन्हें निकम्मा समझ बैठते हैं। इससे बचने के लिए ही बात नहीं, अपितु थोड़ा-थोड़ा करके किस्तों में बीज बोना चाहिए।

अलैंगिक या वानस्पतिक प्रजनन

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पौधा बेचनेवाली (नर्वरीवालों) तथा फलों की खेती करनेवालों के लिए वानस्पतिक विधियों से प्रजनन बहुत उपयोगी सिद्ध होता है, मुख्य रूप से इसलिए कि इन विधियों से वृक्ष सदा वांछित कोटि के ही उपलब्ध होते हैं। इन विधियों को तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है।

पादप के ही किसी भाग से, जेसे जड़, गाँठ (रिज़ोम), कंद, पत्तियों या तने से, अँखुए के साथ या बिना अँखुए के ही, नए पादप उगाना कर्तन (कटिंग) लगाना कहलाता है। रोपने पर इन खंडों में से ही जड़ें निकल आती हैं और नए पादप उत्पन्न हो जाते हैं। अधिक से अधिक पादपों को उगाने की प्राय: यही सबसे सस्ती, शीघ्र और सरल विधि है। टहनी के कर्तन लगाने को माली लोग "खँटी गाड़ना" कहते हैं। कुछ लोग इसे "कलम लगाना" भी कहते हैं, परंतु कलम शब्द का प्रयोग उसी संबंध में उचित है जिसमें एक पादप का अंग दूसरे की जड़ पर चढ़ाया जाता है।

दाबा (लेयरेज) में नए पादप तभी जड़ फेंकते हैं जब वे अपने मूल वृक्ष से संबद्ध रहते हैं। इस विधि द्वारा पादप प्रजनन के तीन प्रकार हैं : (1) शीर्ष दाब (टिप लेयरिंग)-इस प्रकार में किसी टहरी का शीर्ष स्वयं नीचे की ओर झुक जाता है और भूमि तक पहुँचने पर उसमें से जड़ें निकल आती हैं। इसके सबसे सुंदर उदाहरण रेस्पबेरी और लोगनबेरी हैं। (2) सरल दाब-इसके लिए टहनी को झुकाकर उसपर आवश्यकतानुसार मिट्टी डाल देते हैं। इस प्रकार से अनेक जाति के पादप बड़ी सरलता से उगाए जा सकते हैं। कभी-कभी डालों को बिना भूमि तक झुकाए ही उनपर किसी जगह एक आध सेर मिट्टी छीप दी जाती है और उसे टाट आदि से लपेटकर रस्सी से बाँध दिया जाता है। इसको "गुट्टी बाँधना" कहते हैं। मिट्टी को प्रति दिन सींचा जाता है। (3) मिश्र दाब (कंपाउंड लेयरिंग) में पादप की प्रधान डाली को झुकाकर कई स्थानों पर मिट्टी डाल देते हैं, बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा भाग खुला छोड़ देते हैं। अंगूर की तरह की लताओं के प्रजनन के लिए लोग इसी ढंग को प्राय: अपनाते हैं।

उपरोपण (ग्रैफ़्टेज)
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इसमें चढ़ कलम (ग्रैफ्टिंग), भेद कलम (इनाचिंग) और चश्मा (बडिंग) तीनों सम्मिलित हैं। माली लोग चढ़ कलम और भेट कलम दोनों को साटा कहते हैं। इन लोगों में चश्मा के लिए चश्मा शब्द फारसी चश्म से निका है, जिसका अर्थ आँख है। इन तीनों रीतियों में एक पौधे का कोई अंग दूसरे पौधे की जड़ पर उगता है। पहले को उपरोपिका (सायन) कहते हैं; दूसरे को मूल वृंत (रूट स्टाक)। उपरोपण में प्रयुक्त दोनों पौधों को स्वस्थ होना चाहिए। कलम की विधि केवल ऐसे पादपों के लिए उपयुक्त होती है जिनमें ऊपरी छिलकेवाली पर्त और भीतरी काठ के बीच एक स्पष्ट एधास्तर (कैंबिअम लेयर) होता है, क्योंकि यह विधि उपरोपिका और मूल वृंत के एधास्तरों के अभिन्न है। कलम लगाने का कार्य वैसे तो किसी महीने में किया जा सकता है, फिर भी यदि ऋतु अनुकूल हो और साथ ही अन्य आवश्यक परिस्थितियाँ भी अनुकूल हों, तो अधिक सफलता मिलने की संभावना रहती है। यह आवश्यक है कि जुड़नेवाले अंग चिपककर बैठें। उपरोपिका का एधास्तर मूल वृंत के एधास्तर को पूर्ण रूप से स्पर्श करे। वसंत ऋतु के प्रारंभ में यह स्तर अधिकतम सक्रिय हो जाता है, इस ऋतु में उसके अँखुए बढ़ने लगते हैं और किशलय (नए पत्ते) प्रस्फुटित होते हैं। जिन देशों में गर्मी के बाद पावस (मानसून) से पानी बरसता है वहाँ गर्मी की शुष्क ऋतु के बाद बरसात आते ही क्रियाशीलता का द्वितीय काल आता है। इन दोनों ऋतुओं में क्षत सर्वाधिक शीघ्र पूरता है तथा मूल वृंत एवं उपरोपिका का संयोग सर्वाधिक निश्चित होता है। पतझड़ वाले पादपों में कलम उस समय लगाई जाती है जब वे सुप्तावस्था में होते हैं।

कलम लगाने की विधियाँ

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1. शिरोबंधन, 2. शिर तथा जिह्वाबंधन; 3. पैवंद; 4. अँगूठीनुमा चश्मा; 5. उपरोपिका बंधन; 6. काठी कलम; 7. साधारण चश्मा।

1. शिरोबंधन (स्प्लाइस या ह्विप ग्रैफ्टिंग) : यह कलम लगाने की सबसे सरल विधि है। इस विधि में उपरोपिका तथा मूलवृंत के लिए एक ही व्यास के तने चुने जाते हैं (प्राय: 1/4इंच से 1/2इंच तक के)। फिर दोनों को एक ही प्रकार से तिरछा काट दिया जाता है। कटान की लंबाई लगभग 1.5 इंच रहती है। फिर दोनों को दृढ़ता से बाँधकर ऊपर से मोम चढ़ा दिया जाता है। बाँधने के लिए माली लोग केले के पेड़ के तने से छिलके से 1/8 इंच चौड़ी पट्टी चीरकर काम में लाते हैं, परंतु कच्चे (बिना बटे) सूत से भी काम चल सकता है।

छँटाई (प्रूनिंग)

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इसके अंतर्गत लता तथा टहनियों को आश्रय देने की रीति और उनकी काट-छाँट दोनों ही आती हैं। पहली बात के सहारे पादपों को इच्छानुसार रूप दिया जा सकता है। आलंकारिक पादपों के लिए छँटाई करनेवाले की इच्छा के अनुसार शंक्वाकार (गावदुम), छत्राकार (छतरीनुमा) आदि रूप दिया जा सकता है और कभी-कभी तो उन्हें हाथी, घोड़े आदि का रूप भी दे दिया जाता है, परंतु फलों के वृक्षों को साधारणत: कलश या पुष्पपात्र का रूप दिया जाता है और केंद्रीय भाग को घना नहीं होने दिया जाता। छँटाई का उद्देश्य यह होता है कि पादप के प्राय: अनावश्यक भाग निकाल दिए जाएँ जिससे बचा हुआ भाग अधिक उत्पादन कर सके या अधिक सुंदर, पुष्ट और स्वस्थ हो जाए। कुछ फूलों में, जैसे गुलाब में, जड़ और टहनियों की छँटाई इसलिए की जाती है कि अधिक फूल लगें। कुछ में पुरानी लकड़ी इसलिए छाँट दी जाती है कि ऐसी नई टहनियाँ जिनपर फूल लगते हैं। छँटाई में दुर्बल, रोगग्रस्त और घनी टहनियों को छाँटकर निकाल दिया जाता है।

कर्षण (कल्टिवेशन) शब्द का प्रयोग यहाँ पर दो भिन्न कर्मों के लिए किया गया है : एक तो उस छिछली और बार-बार की जानेवाली गोड़ाई या खुरपियाने के लिए जो घास पात मारने के उद्देश्य से की जाती है और दूसरे उस गहरी जोताई के लिए जो प्रति वर्ष इसलिए की जाती है कि भूमि के नीचे घास पात तथा जड़ें आदि दब जाएँ। तरकारी और फूल की खेती में साधारणत: जोताई की बड़ी आवश्यकता रहती है। भारत की अधिकांश जगहों में फलों के उद्यान में भूमि पर घास उगना वांछनीय नहीं है और इसलिए थोड़ी बहुत गोड़ाई आवश्यक हो जाती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि गोड़ाई या खुरपियाने का प्रधान उद्देश्य अवांछित घास पात का निर्मूलन है, इसलिए यह तभी करना चाहिए जब वे छोटे हों और उन्होंने अपनी जड़ें गहरी न जमा ली हों। यह कर्षण छिछला होना चाहिए ताकि तरकारी, फूल या फलों की जड़ों को हानि न पहुँचे। शुष्क ऋतु में प्रत्येक सिंचाई के बाद एक बार हल्का कर्षण और निराना (वीडिंग) अच्छा है। इसके साथ ही फलों की उद्यानभूमि को, कम-से-कम गर्मी में और फिर एक बार बरसात में, पलटनेवाले हल से अवश्य जोत देना चाहिए। जोताई किस समय की जाए, यह भी कुछ महत्वपूर्ण है। यदि अधिक गीली भूमि पर जोताई की जाए तो अवश्य ही इससे भूमि को हानि पहुँच सकती है। हल्की (बालुकामय) मिट्टी की अपेक्षा भारी (चिकनी) मिट्टी में ऐसी हानि अधिक होती है। साधारणत: जोताई वही अच्छी होती है जो पर्याप्त सूखी भूमि पर की जाए, परंतु भूमि इतनी सूखी भी न रहे कि बड़े-बड़े चिप्पड़ उखड़ने लगें। फलों के उद्यान और तरकारी के खेतों में बिना जोते ही विशेष रासायनिक पदार्थों के छिड़काव से घास पात मार डालना भी उपयोगी सिद्ध हुआ है।

अंतर्कृषि

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यदि पादपों की परस्पर दूरी ठीक है तो फलों के नए उद्यान में बहुत सी भूमि ऐसी पड़ी रहेगी जो वर्षों तक फल वाले वृक्षों के काम में न आएगी। इस भूमि में शीघ्र उत्पन्न होनेवाले फल, जैसे पपीता, या कोई तरकारी पैदा की जा सकती है।

भिन्न-भिन्न प्रकार के पादपों को इतनी विभिन्न मात्राओं में पानी की आवश्यकता होती है कि इनके लिए कोई व्यापक नियम नहीं बनाया जा सकता। कितना पानी दिया जाए और कब दिया जाए, यह इस पर निर्भर है कि कौन-सा पौधा है और ऋतु क्या है। गमले में लगे पौधों को सूखी ऋतु में प्रति दिन पानी देना आवश्यक है। सभी पादपों के लिए भूमि को निरंतर नम रहना चाहिए जिससे उनकी बाढ़ न रुके। फलों के भी समुचित विकास के लिए निरंतर पानी की आवश्यकता रहती है। यह स्मरण रखना चाहिए कि भूमि में नमी मात्रा इतनी कम कभी न हो कि पौधे मुरझा जाएँ और फिर पनप न सकें। अच्छी सिंचाई वही है जिसमें पानी कम से कम मात्रा में खराब जाए। यह खराबी कई कारणों से हो सकती है : ऊपरी सतह पर से पानी के बह जाने से, अनावश्यक गहराई तक घुस जाने से, ऊपरी सतह से भाप बनकर उड़ जाने से तथा घास-पात द्वारा आवश्यक पानी खिच जाने से। पंक्तियों में लगी हुई तरकारियों की बगल को बगल की नालियों द्वारा सींचना सरल है। छोटे वृक्ष थाला बनाकर सींचे जा सकते हैं। थाले इस प्रकार आयोजित हों कि पादपों के मूल तक की भूमि सिंच जाए। जैसे-जैसे वृक्ष बढ़ते जाएँ थालों के वृत्त को बढ़ाते जाना चाहिए। बड़े से बड़े वृक्षों की सिंचाई के लिए नालियों की पद्धति ही कुछ परिवर्तित रूप में उपयोगी होती है।

बुद्धिमत्तापूर्ण सिंचाई के लिए वृक्षों तथा भूमि की स्थिति पर ध्यान रखना परम आवश्यक है। विशेष यंत्रों से, जैसे प्रसारमापी (टेंसिओमीटर) तथा जिप्सम परिचालक इष्टिकाओं (जिप्सम कंडक्टैंस ब्लॉक) को भूमि के भीतर रखकर, भूमि की आद्र्रता नापी जा सकती है। भूमि की नमी जानने के लिए पेंचदार बर्मा (ऑथर) का भी उपयोग हो सकता हैं।

पादपों को उचित आहार मिलना सबसे महत्त्व की बात है। फल और तरकारी अन्य फसलों की अपेक्षा भूमि से अधिक मात्रा में आहार ग्रहण करते हैं। फलवाले वृक्ष तथा तरकारी के पादपों को अन्य पादपों के सदृश ही अपनी वृद्धि के लिए कई प्रकार के आहार अवयवों की आवश्यकता होती है जो साधारणत: पर्याप्त मात्रा में उपस्थित रहते हैं। परंतु कोई अवयव पादप को कितना मिल सकेगा यह कई बातों पर निर्भर है, जैसे वह अवयव मिट्टी में किस खनिज के रूप में विद्यमान है, मिट्टी का कितना अंश कलिल (कलायड) के रूप में है, मिट्टी में आद्र्रता कितनी है और उसकी अम्लता (पी एच) कितनी है। अधिकांश फसलों के लिए भूमि में नाइट्रोजन, फ़ास्फ़ोरस तथा पोटैसियम डालना उपयोगी पाया गया है, क्योंकि ये तत्त्व विभिन्न फसलों द्वारा न्यूनाधिक मात्रा में निकल जाते हैं। इसलिए यह देखना आवश्यक है कि भूमि के इन तत्वों का संतुलन पौधों की आवश्यकता के अनुसार ही रहे। किसी एक तत्त्व के बहुत अधिक मात्रा में डालने से दूसरे तत्वों में कमी या असंतुलन उत्पन्न हो सकता है, जिससे उपज में कमी आ सकती है।

नाइट्रोजन

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भारतीय भूमि के लिए खाद के सबसे महत्वपूर्ण अंग नाइट्रोजन तथा वानस्पतिक पदार्थ हैं। यह स्मरण रहे कि भूमि-भूमि में अंतर होता है; इसलिए इस संबंध में कोई एक व्यापक नुस्खा नहीं बताया जा सकता जिसका प्रयोग सर्वत्र किया जा सके। नाइट्रोजन देनेवाली कुछ वस्तुएँ ये हैं:-(क) जीवजनिक (ऑर्गैनिक) स्रोत: गोबर, लीद, मूत्र, कूड़ा कर्कट आदि की खाद; खली तथा हरी फसलें जो खाद के रूप में काम में आ सकती हैं, जैसे सनई, तिनपतिया (क्लोवर) मूँग, ढेंचा आदि। (ख) अजीवजनित स्रोत : यूरिया, जिसमें 40 प्रतिशत नाइट्रोजन होता है, अमोनियम सल्फेट (20 प्रतिशत नाइट्रोजन), अमोनियम नाइट्रेट (35 प्रतिशत नाइट्रोजन), कैल्सियम नाइट्रेट (15 प्रतिशत नाइट्रोजन) तथा सोडियम नाइट्रेट (16 प्रतिशत नाइट्रोजन)। साधारण: भूमि में प्रति एकड़ 50 से 12 पाउंड तक नाइट्रोजन संतोषजनक होने की आशा की जा सकती है।

फ़ास्फ़ोरस

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यह संभव है कि फ़ास्फ़ोरस भूमि में पर्याप्त मात्रा में रहे, परंतु पादपों को केवल धीरे-धीरे प्राप्त हो। देखा गया है कि कभी-कभी जहाँ अन्य फसलें बहुत ही निकम्मी होती थीं, वहाँ फलों का उद्यान भूमि में बिना ऊपर से फ़ास्फ़ोरस पदार्थ डाले, बहुत अच्छी तरह फूलता फलता है, संभवत: इसलिए कि फल के वृक्षों को फ़ास्फ़ोरस की आवश्यकता धीरे-धीरे ही पड़ती है। खादों में तथा सभी प्रकार के जीवजनित पदार्थों में कुछ-न-कुछ फ़ास्फ़ोरस रहता है। परंतु फ़ास्फ़ोरसप्रद विशेष वस्तुएँ ये हैं-अस्थियों का चूर्ण (जिसमें 20 से 25 प्रतिशत फ़ास्फ़ोरस पेंटाक्साइड, रहता है), बेसिक स्लैग (15 से 20 प्रतिशत फ़ास्फ़ोरस पेंटाक्साइड) और सुपर फ़ास्फेट जिसका प्रयोग बहुतायत से होता है। इसमें 16 से 40 प्रतिशत फ़ास्फ़ोरस पेंटाक्साइड रहता है। उन मिट्टयों में, जो फ़ास्फ़ोरस को स्थिर (फ़िक्स) कर लेती हैं, पहली बार इतना फ़ास्फ़ोरसमय पदार्थ डालना चाहिए कि स्थिर करने पर भी पौधों के लिए कुछ फ़ास्फ़ोरस बचा रहे, परंतु जो मिट्टयाँ फ़ास्फ़ोरस को स्थिर नहीं करतीं उनमें अधिक मात्रा में फ़ास्फ़ोरसमय पदार्थ नहीं डालना चाहिए, अन्यथा संतुलन बिगड़ जाएगा और अन्य अवयव कम पड़ जाएँगे।

पोटैशियम

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जिस भूमि में सुलभ पोटैशियम की मात्रा बहुत ही कम होती है उसमें पोटैशियम देने पर दर्शनीय अंतर पड़ता है, जो उपज की वृद्धि से स्पष्ट हो जाता है। पोटेशियम सल्फेट तथा पोटैशियम क्लोराइड ही साधारणत: खाद के लिए प्रयुक्त होते हैं। इनमें से प्रत्येक में लगभग 50 प्रतिशत पोटैशियम आक्साइड होता है। पोटैशियम नाइट्रेट में 44 प्रतिशत पोटैशियम आक्साइड होता है; साथ में 13 प्रतिशत नाइट्रोजन भी रहता है। जीव जनित खादों में भी 50 प्रतिशत या अधिक पोटैशियम ऑक्साइड हो सकता है।

इन्हें भी देखें

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 बागवानी का जादू Archived 2023-08-11 at the वेबैक मशीन

बाहरी कड़ियाँ

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