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जलजीवशाला

जलजीवशाला (Aquarium) या कृत्रिमजलाशय, पानी से भरे बर्तन, या कांच के हौज को कहते हैं, जिसमें जीवित जलचरों या पौधों को रखा जाता है। ये शालाएँ मुख्यत: मछलियों को पालने और उनके कौतुक देखने दिखाने के काम में आती हैं।

मछलियों के पाले जाने के प्रमाण कम से कम 4,500 वर्ष पूर्व तक के प्राप्त हुए हैं, जब सुमेर निवासी भोजन के लिये उन्हें हौजों या पोखरों में पालते थे। किंतु संभव है कि यह प्रथा इससे भी पूर्व प्रचलित रही हो। भारत में मछलियों को पालना सर्वप्रथम कब आरंभ हुआ यह कहना कठिन है, किंतु एशियाई देशों में से चीन में, शुंगवंश के राज्यकाल में (सन् 960-1278) लाल मछलियों (स्वर्ण मत्स्यों) का कौतुम और सजावट के लिये पालन प्रारंभ हुआ। चीनियों ने छोटे बरतनों में रखने योग्य तथा सजावट के उपर्युक्त मछलियों की विशेष जातियों का विकास किया। इन्होंने उत्तम नस्लों के चुनाव से जिन जातियों की मछलियों का संवर्धन किया उन्हीं से आज की सुंदरतम पालतू मछलियाँ प्राप्त हुई हैं। रोमन लोगों में भी पालतू मछलियाँ रखने का वर्णन है। ये मछलियाँ हौजों, या छोटे तालाबों, में पाली जाती थीं। शीशे के बरतनों या शालाओं में मछली पालन की प्रथा 200 वर्षों से अधिक पुरानी नहीं है।

जलजीवशालाएँ दो प्रकार की होती हैं : सार्वजनिक तथा व्यक्तिगत। भिन्न भिन्न देशों के अनेक मुख्य नगरों में सार्वजनिक जलजीवशालाएँ स्थापित हैं। न्यूयार्क, शिकागो, सैनफ्रांसिस्को, लंदन, बर्लिन, इत्यादि नगरों में बड़ी बड़ी जलजीवशालाएँ हैं। इनसे छोटी, किंतु प्रसिद्ध, जलजीवशालाएँ मद्रास, हवाई द्वीप, आस्ट्रेलिया, दक्षिणी अफ्रीका तथा संयुक्त राज्य (अमरीका) के वाशिंगटन, फिलाडेल्फ़िया, बोस्टन, बाल्टिमोर इत्यादि नगरों में हैं। ये जलजीवशालाएँ मुख्यत: जनशिक्षा तथा मनोरंजन के लिये हैं, कुछ में थोड़ा बहुत वैज्ञानिक खोज का काम भी किया जाता है। वे जलजीवशालाएँ अलग हैं, जिनका प्रयोजन मुख्यत: वैज्ञानिक अनुसंधान है। ये साधारणत: विशाल होती हैं। इनके साथ जनता के विनोदार्थ छोटी जीवशालाएँ भी प्राय: रहती हैं। इनमें प्रधन संयुक्त राज्य (अमरीका) के मासाच्यूसेट्स प्रदेश के वुड्स होल नामक स्थान में, इंग्लैंड के प्लिमथ तथा इटली के नेपुल्स नगर में हैं। देखने की सुविधा में विचार से जलजीवशालाओं की दीवारें काच की बनाईं जाती हैं। बड़े जलाशयों की दीवारें एक से डेढ़ इंच मोटे काच की होती हैं।

जलजीवशालाओं का जल

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सार्वजनिक जलजीवशालाओं की देखभाल के लिये जल को आवश्यक ताप तथा रासायनिक संरचना को बनाए रखना तथा जलजीवों के स्वास्थ्य, भोजन, रोग और परजीवियों से संबंधित समस्याओं का निराकरण भी आवश्यक होता है। जहाँ उचित प्रकार का जल आवश्यक परिमाण में सुलभ होता है, वहाँ मशीनों द्वारा आवश्यक जल की पूर्ति सरलता से होती है। ताजा जल नगरपालिकाओं के जलाशयों से मिल जाता है, किंतु इस जल के जीवाणुओं को मारने के लिये प्रयुक्त क्लोरिन गैस के अवशेष को पहले अलग कर लिया जाता है, क्योंकि यह गैस जलाशय के जीवों को हानि पहुँचाती है। यदि जलाशय के लिये समुद्री पानी आवश्यक है, तो समुद्र के ऐसे स्थान से जल लेते हैं जहाँ नदियों से आई हुई, या अन्य प्रकार से गिरनेवाली, गंदगियाँ न हों। ऐसे स्थानों पर भी तूफानों के कारण जल उपयोग के अयोग्य ठहर सकता है, इसलिये अनेक जगहों पर ऐसा प्रबंध रहता है कि हौज में एक बार भरा हुआ जल पुन: संचारित होता रहता है और मार्ग में उसके छानने और उपयुक्त बनाने की क्रियाएँ संपन्न हो जाती हैं।

इस कार्य के लिये जीवशालाओं से जल एक छनने से होकर नीचे स्थित एक हौज़ में चला जाता है। यहाँ इसका रासायनिक शोधन तथा तापनियंत्रण होता है। जल का ताप नियमित बनाए रखने के लिये गरम या ठंडा करने के उष्मास्थैतिक उपकरणों का प्रयोग किया जाता है। नीचे के हौज से पंप मशीन जल को उठाकर फिर जीवशाला में पहुँचा देती हैं। जीवों द्वारा जल में से ली हुई ऑक्सीजन की पूर्ति तथा उसमें छोड़ी हुई कार्बन डाइआक्साइड के निकास के लिये मार्ग में उचित स्थानों पर वायुसंचारण के साधन रहते हैं। इस प्रकार की बड़ी संस्थाओं में भिन्न प्रकार की जलवयु में पाए जानेवाले जीवों के लिये उष्ण, समशीतोष्ण तथा शीतल, समुद्री जल के भिन्न भिन्न जलाशय होते हैं। इसी प्रकार भिन्न ताप के मृदु जल के जलाशय आवश्यक हैं तथा भिन्न ताप और भिन्न क्षारीय या अम्लीय जलों की भी आवश्यकता होती है। जल के आवागमन के लिये धातु के नलों के स्थान पर, जिनका प्रभाव विषैला हो सकता है, काँच के या सीमेंट के पलस्तर किए हुए नल उपयुक्त होते हैं।

जंतुओं की परिचर्या और चौकसी

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जंतुओं के संग्रह में यह सावधानी अत्यावश्यक है कि पकड़ते समय उन्हें अधिक चोट न लगे और परिवहन के समय उपयुक्त जल तथा खाद्य उन्हें मिलता रहे। कुछ खाद्य सामान तो बाजारों में मिल जाते हैं, किंतु कुछ खाद्य जलशाला के कार्यकर्ताओं को ढूँढ़कर एकत्रित करना पड़ता है। परजीवियों तथा रोग और महामारियों से रक्षा कर विशेष ध्यान देना चाहिए। जलजीवों के रोगों की चिकित्सा कठिन है, इसलिये निवारक उपाय ही अधिक प्रभावशाली सिद्ध हुए हैं। चिकित्सा के लिय मुख्यत: जीव को ऐसे विलयन में रख देते हैं जिसमें उसको कोई हानि न पहुँचे, किंतु संक्रामक जीवाणु मर जाएँ। यदि जलाशय के जल को ठंढा न होने दिया जाए, तो रोगों और परजीवियों से विशेष आशंका नहीं रहती।

व्यक्तिगत जलजीवशाला

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छोटे जलाशयों में मछलियों के साथ जलीय वनस्पतियों को भी रखने के कारण, घरों में जलजीवशालाओं के प्रति आकर्षण बढ़ गया है और ये लोकप्रिय हो गई हैं। अनेक जलीय जीव स्थिर जल में जीवनयापन के अभ्यस्त हैं। इसलिये इस प्रकार की जीवशालाओं का रखरखाव अपेक्षाकृत सरल होता है, यद्यपि इनकी देखभाल के सिद्धांत मुख्यत: वे ही हैं जो सार्वजनिक बड़ी जीवशालाओं के संबंध में लागू होते हैं।

एक मिथ्या विश्वास फैला हुआ है कि स्थिर जलवाली उपर्युक्त जलजीवशालाओं में उपस्थित वनस्पतियों से जल का ऑक्सीकरण होता रहता है। वास्तव में बात इसके विपरीत है। वनस्पतियाँ भी रात में, या बदलीवाले दिनों में, जल से उसी प्रकार ऑक्सीजन लेती और कार्बन डाइऑक्साइड देती हैं जैसे जलीय जीव; किंतु इन जीवशालाओं में वनस्पतियों की उपस्थिति से अन्य लाभ हैं। मछलियों तथा अन्य जीवों के शरीर से जो मल इत्यादि निकलते हैं वे वनस्पतियों के लिये खाद के काम आ जाते हैं और इस तरह जल में गंदगी नहीं एकत्रित होने पाती। वनस्पतियों से जलाशय की सुंदरता में भी वृद्धी होती है।

वनस्पतियों और जंतुओं द्वारा जल से शोशित ऑक्सीजन का पुन:स्थापन तथा इनके द्वारा जल में उत्पन्न कार्बन डाइऑक्साइड का निष्कासन समुचित रीति से होना आवश्यक है। यदि जलाशय के जल और वायु का मध्यस्थ स्तर यथेष्ट विस्तृत है, तो यह कार्य स्वयमेव संपादित हो जाता है। यदि ऐसा नहीं है, तो सूक्ष्म बुलबुलों के रूप में पंप या अन्य किसी उपाय से जल के भीतर से वायु का निष्कासन कराना आवश्यक होता है। किसी भी जलाशय में यदि जीवों तथा वनस्पतियों का परिमाण जलवायु-मध्यस्थ-स्तर के क्षेत्रफल से संतुलित रखा जाय, तो वायुसंचरण की विशेष व्यवस्था किए बिना भी काम चल सकता है।

संतानोत्पत्ति

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मछलियों तथा अन्य जलजंतुओं को पालने के सिवाय इनकी संतानोत्पत्ति की रीतियों का अध्ययन भी आकर्षक विषय है। इन जीवों की लगभग 300 ऐसी जातियाँ हैं जो जलाशयों में पाली जा सकती हैं। इनमें से कुछ की प्रजनन रीतियाँ विचित्र प्रकार की हैं। अनेक अंडे देती हैं, जिनको सेने पर बच्चे निकलते हैं। अन्य जीवित बच्चों को जन्म देती हैं, अनेक बच्चों की बड़ी देखभाल और सावधानी रखती हैं। स्याम देश की लड़ाकू मछलियों का नर लसदार फेन का आवास बना लेता है। इसमें मादा द्वारा दिए अंडे रखकर वह उनकी रक्षा करता रहता है। सिक्लिदी (Cichlidae) जाति की मछलियाँ अपने अंडों और बच्चों को भी सुरक्षा के लिये अपने मुँह में रखे रहती हैं और जितने दिनों तक अंडों में से बच्चे नहीं निकलते उतने दिनों तक भोजन नहीं करती।

जलजीवशाला की मछलियों के भोजन की समस्या विशेष कठिन नहीं है। मछलियों के साधारण भोज्य पदार्थ और सूक्ष्म जलजीवों से इनका निर्वाह हो जाता है। घरेलू जीवशालाओं की मछलियों के लिये धान या भुजिया चावल का लावा भी उपयुक्त पाया गया है। शेष बचा भोजन जल को गंदा करता है। मछलियों को अत्यल्प आहार की आवश्यकता होती है। इसलिये इस भूल की अधिक संभावना है कि कम भोजन देने के स्थान पर आवश्यकता से अधिक भोजन दिया जाय। यह ध्यान रखना सदैव आवश्यक है कि जलाशयों में उतना ही भोजन डाला जाए जितना खप सके।

जलजीवशालाओं के रखरखाव संबंधी पूर्वोक्त सिद्धांत मछली पालने की सभी रीतियों पर लागू होते हैं, चाहे सजावट के लिये घरों में रखी जानेवाली छोटी जीवशालाएँ हों, या बगीचों में बनाए जानेवाले हौज हों, अथवा भोजन के लिये पाली जानेवाली मछलियों के पोखरे हों। लगभग सभी देशों की सरकारों ने, सार्वजनिक जलाशयों में यथेष्ट मछलियाँ बनाए रखने के लिये, विशेष मत्स्यशालाओं में मछलियों के रखने, उनके अंडों का संरक्षण तथा बच्चों के पालने का प्रबंध किया है। जहाँ संभव होता है वहाँ अडों को मछलियों से अलग रखकर सेने और बच्चे पैदा करने का भी प्रबंध रहता है। इस प्रकार नदियों या जलाशयों में छोड़ने के लिये छोटी या बड़ी, जिस प्रकार की भी मछलियाँ चाहिए, उपलब्ध हो जाती हैं।

बाहरी कड़ियाँ

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