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केसर

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केसर

सैफरन क्रोकस (Chintan Hareshbhai Varsani)
केसर का पौधा, लाल स्टिग्मा के साथ
वैज्ञानिक वर्गीकरण
जगत: पादप
अश्रेणीत: एंजियोस्पर्म
अश्रेणीत: एकबीजपत्री
गण: एऐस्पैरागलेस
कुल: इरिडेशियेई
उपकुल: क्रोकोएडियेइ
वंश: क्रोकस
जाति: सी. सैटिवस
द्विपद नाम
क्रोकस सैटिवस
L.
केसर का पुष्प

All this is presented by Chintan Varsani.(Rajkot Gujarat) Contact No.+91 7046434340 केसर (saffron) एक सुगंध देनेवाला पौधा है। इसके पुष्प की वर्तिकाग्र (stigma) को केसर, कुंकुम, जाफरान अथवा सैफ्रन (saffron) कहते हैं। यह इरिडेसी (Iridaceae) कुल की क्रोकस सैटाइवस (Crocus sativus) नामक क्षुद्र वनस्पति है जिसका मूल स्थान दक्षिण यूरोप है, यद्यपि इसकी खेती स्पेन, इटली, ग्रीस, तुर्किस्तान, ईरान, चीन तथा भारत में होती है। भारत में यह केवल जम्मू (किस्तवार) तथा कश्मीर (पामपुर) के सीमित क्षेत्रों में पैदा होती हैं। प्याज तुल्य इसकी गुटिकाएँ (bulb) प्रति वर्ष अगस्त-सितंबर में रोपी जाती हैं और अक्टूबर-दिसंबर तक इसके पत्र तथा पुष्प साथ निकलते हैं।

केसर का क्षुप 15-25 सेंटीमीटर ऊँचा, परंतु कांडहीन होता है। पत्तियाँ मूलोभ्दव (radical), सँकरी, लंबी और नालीदार होती हैं। इनके बीच से पुष्पदंड (scapre) निकलता है, जिसपर नीललोहित वर्ण के एकाकी अथवा एकाधिक पुष्प होते हैं। पंखुडि़याँ तीन तीन के दो चक्रों में और तीन पीले रंग के पुंकेशर होते हैं। कुक्षिवृंत (style) नारंग रक्तवर्ण के, अखंड अथवा खंडित और गदाकार होते हैं। इनकी ऊपर तीन कुक्षियाँ, लगभग एक इंच लंबी, गहरे, लाल अथवा लालिमायुक्त हल्के भूरे रंग की होती हैं, जिनके किनारे दंतुर या लोमश होते हैं। केसर की गंध तीक्ष्ण, परंतु लाक्षणिक और स्वाद किंचित् कटु, परंतु रुचिकर, होता है।

इसका उपयोग मक्खन आदि खाद्य द्रव्यों में वर्ण एवं स्वाद लाने के लिये किया जाता हैं। चिकित्सा में यह उष्णवीर्य, उत्तेजक, आर्तवजनक, दीपक, पाचक, वात-कफ-नाशक और वेदनास्थापक माना गया है। अत: पीड़ितार्तव, सर्दी जुकाम तथा शिर:शूलादि में प्रयुक्त होता है।

केसर का वानस्पतिक नाम क्रोकस सैटाइवस (Crocus sativus) है। अंग्रेज़ी में इसे सैफरन (saffron) नाम से जाना जाता है। यह इरिडेसी (Iridaceae) कुल का क्षुद्र वनस्पति है जिसका मूल स्थान दक्षिण यूरोप है। 'आइरिस' परिवार का यह सदस्य लगभग 80 प्रजातियों में विश्व के विभिन्न भू-भागों में पाया जाता है। विश्व में केसर उगाने वाले प्रमुख देश हैं - फ्रांस, स्पेन, भारत, ईरान, इटली, ग्रीस, जर्मनी, जापान, रूस, आस्ट्रिया, तुर्किस्तान, चीन, पाकिस्तान के क्वेटा एवं स्विटज़रलैंड। आज सबसे अधिक केसर उगाने का श्रेय स्पेन को जाता है, इसके बाद ईरान को। कुल उत्पादन का 80% इन दोनों देशों में उगाया जा रहा है, जो लगभग 300 टन प्रतिवर्ष है। भारत में केसर

केसर विश्व का सबसे कीमती पौधा है। केसर की खेती भारत में जम्मू के किश्तवाड़ तथा जन्नत-ए-कश्मीर के पामपुर (पंपोर) के सीमित क्षेत्रों में अधिक की जाती है। केसर यहां के लोगों के लिए वरदान है। क्योंकि केसर के फूलों से निकाला जाता सोने जैसा कीमती केसर जिसकी कीमत बाज़ार में तीन से साढ़े तीन लाख रुपये किलो है। परंतु कुछ राजनीतिक कारणों से आज उसकी खेती बुरी तरह प्रभावित है। यहां की केसर हल्की, पतली, लाल रंग वाली, कमल की तरह सुन्दर गंधयुक्त होती है। असली केसर बहुत महंगी होती है। कश्मीरी मोंगरा सर्वोतम मानी गई है। एक समय था जब कश्मीर का केसर विश्व बाज़ार में श्रेष्ठतम माना जाता था। उत्तर प्रदेश के चौबटिया ज़िले में भी केसर उगाने के प्रयास चल रहे हैं। विदेशों में भी इसकी पैदावार बहुत होती है और भारत में इसकी आयात होती है।

जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर से सिर्फ 20 किलोमीटर की दूरी पर एक छोटे शहर पंपोर के खेतों में शरद ऋतु के आते ही खुशबूदार और कीमती जड़ी-बूटी ‘केसर’ की बहार आ जाती है। वर्ष के अधिकतर समय ये खेत बंजर रहते हैं क्योंकि ‘केसर’ के कंद सूखी ज़मीन के भीतर पनप रहे होते हैं, लेकिन बर्फ़ से ढकी चोटियों से घिरे भूरी मिट्टी के मैदानों में शरद ऋतु के अलसाये सूर्य की रोशनी में शरद ऋतु के अंत तक ये खेत बैंगनी रंग के फूलों से सज जाते हैं। और इस रंग की खुशबू सारे वातावरण में बसी रहती है। इन केसर के बैंगनी रंग के फूलों को हौले-हौले चुनते हुए कश्मीरी लोग इन्हें सावधानी से तोड़ कर अपने थैलों में इक्ट्ठा करते हैं। केसर की सिर्फ 450 ग्राम मात्रा बनाने के लिए क़रीब 75 हज़ार फूल लगते हैं। केसर का पौधा

'केसर' को उगाने के लिए समुद्रतल से लगभग 2000 मीटर ऊँचा पहाड़ी क्षेत्र एवं शीतोष्ण सूखी जलवायु की आवश्यकता होती है। पौधे के लिए दोमट मिट्टी उपयुक्त रहता है। यह पौधा कली निकलने से पहले वर्षा एवं हिमपात दोनों बर्दाश्त कर लेता है, लेकिन कलियों के निकलने के बाद ऐसा होने पर पूरी फसल चौपट हो जाती है। मध्य एवं पश्चिमी एशिया के स्थानीय पौधे केसर को कंद (बल्ब) द्वारा उगाया जाता है।

केसर का पौधा सुगंध देनेवाला बहुवर्षीय होता है और क्षुप 15 से 25 सेमी (आधा गज) ऊंचा, परंतु कांडहीन होता है। इसमें घास की तरह लंबे, पतले व नोकदार पत्ते निकलते हैं। जो मूलोभ्दव (radical), सँकरी, लंबी और नालीदार होती हैं। इनके बीच से पुष्पदंड (scapre) निकलता है, जिस पर नीललोहित वर्ण के एकाकी अथवा एकाधिक पुष्प होते हैं। अप्रजायी होने की वजह से इसमें बीज नहीं पाए जाते हैं। प्याज तुल्य केसर के कंद / गुटिकाएँ (bulb) प्रति वर्ष अगस्त-सितंबर माह में बोए जाते हैं, जो दो-तीन महीने बाद अर्थात नवंबर-दिसंबर तक इसके पत्र तथा पुष्प साथ निकलते हैं। इसके पुष्प की शुष्क कुक्षियों (stigma) को केसर, कुंकुम, जाफरान अथवा सैफ्रन (saffron) कहते हैं। इसमें अकेले या 2 से 3 की संख्या में फूल निकलते हैं। इसके फूलों का रंग बैंगनी, नीला एवं सफेद होता है। ये फूल कीपनुमा आकार के होते हैं। इनके भीतर लाल या नारंगी रंग के तीन मादा भाग पाए जाते हैं। इस मादा भाग को वर्तिका (तन्तु) एवं वर्तिकाग्र कहते हैं। यही केसर कहलाता है। प्रत्येक फूल में केवल तीन केसर ही पाए जाते हैं। लाल-नारंगी रंग के आग की तरह दमकते हुए केसर को संस्कृत में 'अग्निशाखा' नाम से भी जाना जाता है।


इन फूलों में पंखुडि़याँ तीन-तीन के दो चक्रों में और तीन पीले रंग के पुंकेशर होते हैं। कुक्षिवृंत (style) नारंग रक्तवर्ण के, अखंड अथवा खंडित और गदाकार होते हैं। इनके ऊपर तीन कुक्षियाँ, लगभग एक इंच लंबी, गहरे, लाल अथवा लालिमायुक्त हल्के भूरे रंग की होती हैं, जिनके किनारे दंतुर या लोमश होते हैं।

इन फूलों की इतनी तेज़ खुशबू होती है कि आसपास का क्षेत्र महक उठता है। केसर की गंध तीक्ष्ण, परंतु लाक्षणिक और स्वाद किंचित् कटु, परंतु रुचिकर, होता है। इसके बीज आयताकार, तीन कोणों वाले होते हैं जिनमें से गोलकार मींगी निकलती है। 'केसर को निकालने के लिए पहले फूलों को चुनकर किसी छायादार स्थान में बिछा देते हैं। सूख जाने पर फूलों से मादा अंग यानि केसर को अलग कर लेते हैं। रंग एवं आकार के अनुसार इन्हें - मागरा, लच्छी, गुच्छी आदि श्रेणियों में वर्गीकत करते हैं। 150000 फूलों से लगभग 1 किलो सूखा केसर प्राप्त होता है।


'केसर' खाने में कड़वा होता है, लेकिन खुशबू के कारण विभिन्न व्यंजनों एवं पकवानों में डाला जाता है। इसका उपयोग मक्खन आदि खाद्य द्रव्यों में वर्ण एवं स्वाद लाने के लिये किया जाता हैं। गर्म पानी में डालने पर यह गहरा पीला रंग देता है। यह रंग कैरेटिनॉयड वर्णक की वजह से होता है। यह घुलनशील होता है, साथ ही अत्यंत पीला भी। प्रमुख वर्णको में कैरोटिन, लाइकोपिन, जियाजैंथिन, क्रोसिन, पिकेक्रोसिन आदि पाए जाते हैं। इसमें ईस्टर कीटोन एवं वाष्पशील सुगंध तेल भी कुछ मात्रा में मिलते हैं। अन्य रासायनिक यौगिकों में तारपीन एल्डिहाइड एवं तारपीन एल्कोहल भी पाए जाते हैं। इन रासायनिक एवं कार्बनिक यौगिकों की उपस्थिति केसर को अनमोल औषधि बनाती है। केसर की रासायनिक बनावट का विश्लेषण करने पर पता चला हैं कि इसमें तेल 1.37 प्रतिशत, आर्द्रता 12 प्रतिशत, पिक्रोसीन नामक तिक्त द्रव्य, शर्करा, मोम, प्रटीन, भस्म और तीन रंग द्रव्य पाएं जाते हैं। अनेक खाद्य पदार्थो में केसर का उपयोग रंजन पदार्थ के रूप में किया जाता है।

Phytochemistry and sensory properties edit

Structure of picrocrocin:[36]

 β–D-glucopyranose derivative
 safranal moiety

Esterification reaction between crocetin and gentiobiose. Components of α–crocin:[37]

 β–D-gentiobiose
 crocetin

केसर में लगभग 28 वाष्पशील और सुगंध देने वाले यौगिक होते हैं, जिनमें कीटोन और एल्डिहाइड प्रमुख हैं।[38] इसके मुख्य सुगंध-सक्रिय यौगिक हैं सैफ्रानल - केसर की सुगंध के लिए जिम्मेदार मुख्य यौगिक - 4-कीटोइसोफोरोन, और डायहाइड्रोक्सोफोरोन।[37][38] केसर में गैर-वाष्पशील फाइटोकेमिकल्स भी होते हैं,[39] जिसमें कैरोटीनॉयड ज़ेक्सैन्थिन, लाइकोपीन, विभिन्न α- और β-कैरोटीन, साथ ही क्रोसेटिन और इसका ग्लाइकोसाइड क्रोसीन शामिल हैं, जो सबसे अधिक जैविक रूप से सक्रिय घटक हैं।[37][40] क्योंकि क्रोसेटिन अन्य कैरोटीनॉयड की तुलना में छोटा और पानी में अधिक घुलनशील होता है, यह अधिक तेजी से अवशोषित होता है यह क्रोसिन ट्रांस-क्रोकेटिन डाइ-(β-D-जेंटियोबायोसाइल) एस्टर है; यह व्यवस्थित (IUPAC) नाम 8,8-डायपो-8,8-कैरोटीनोइक एसिड रखता है। इसका मतलब यह है कि केसर की सुगंध में अंतर्निहित क्रोसिन कैरोटीनॉयड क्रोकेटिन का डिजेंटियोबायोस एस्टर है।[३९] क्रोसिन स्वयं हाइड्रोफिलिक कैरोटीनॉयड की एक श्रृंखला है जो या तो क्रोकेटिन के मोनोग्लाइकोसिल या डिग्लाइकोसिल पॉलीन एस्टर हैं।[३९] क्रोकेटिन एक संयुग्मित पॉलीन डाइकारबॉक्सिलिक एसिड है जो हाइड्रोफोबिक है और इस प्रकार तेल में घुलनशील है। जब क्रोकेटिन को दो जल में घुलनशील जेंटियोबायोस, जो कि शर्करा हैं, के साथ एस्टरीकृत किया जाता है, परिणामी α-क्रोसिन एक कैरोटीनॉयड वर्णक है जो सूखे केसर के द्रव्यमान का 10% से अधिक बना सकता है। दो एस्टरीफाइड जेंटियोबायोसिस α-क्रोसिन को चावल के व्यंजनों जैसे पानी आधारित और गैर-वसायुक्त खाद्य पदार्थों को रंगने के लिए आदर्श बनाते हैं।[41] कड़वा ग्लूकोसाइड पिक्रोक्रोसिन केसर के तीखे स्वाद के लिए जिम्मेदार है।[37] पिक्रोक्रोसिन (रासायनिक सूत्र: C 16H 26O 7; व्यवस्थित नाम: 4-(β-D-ग्लूकोपाइरानोसिलॉक्सी)-2,6,6-ट्राइमेथिलसाइक्लोहेक्स-1-ईन-1-कार्बाल्डिहाइड) एक एल्डिहाइड उप-अणु का एक संघ है जिसे सैफरानल (व्यवस्थित नाम: 2,6,6-ट्राइमेथिलसाइक्लोहेक्सा-1,3-डायन-1-कार्बाल्डिहाइड) और एक कार्बोहाइड्रेट के रूप में जाना जाता है। इसमें कीटनाशक और पीड़कनाशी गुण होते हैं, और यह सूखे केसर का 4% तक हो सकता है। पिक्रोक्रोसिन कैरोटीनॉयड ज़ेक्सैंथिन का एक छोटा संस्करण है जो ऑक्सीडेटिव क्लीवेज के माध्यम से निर्मित होता है, और टेरपीन एल्डिहाइड सफ़रानल का ग्लाइकोसाइड है।[42]

जब केसर को उसकी कटाई के बाद सुखाया जाता है, तो गर्मी, एंजाइमेटिक क्रिया के साथ मिलकर पिक्रोक्रोसिन को विभाजित करती है जिससे डी-ग्लूकोज और एक मुक्त सफ़रानल अणु प्राप्त होता है।[36] सफ़रानल, एक वाष्पशील तेल है, जो केसर को उसकी विशिष्ट सुगंध देता है।[2][43] सफ़रानल पिक्रोक्रोसिन से कम कड़वा होता है और कुछ नमूनों में सूखे केसर के वाष्पशील अंश का 70% तक हो सकता है।[42] केसर की सुगंध के अंतर्गत दूसरा अणु 2-हाइड्रॉक्सी-4,4,6-ट्राइमेथिल-2,5-साइक्लोहेक्साडियन-1-ऑन है, जो केसर जैसी सूखी घास जैसी गंध पैदा करता है।[४२] रसायनज्ञों ने पाया है कि यह केसर की खुशबू में सबसे शक्तिशाली योगदानकर्ता है, भले ही यह सैफरानल की तुलना में कम मात्रा में मौजूद हो।[४२] सूखा केसर पीएच स्तर में उतार-चढ़ाव के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होता है, और प्रकाश और ऑक्सीकरण एजेंटों की उपस्थिति में तेजी से रासायनिक रूप से टूट जाता है। इसलिए, इसे वायुमंडलीय ऑक्सीजन के संपर्क को कम करने के लिए एयर-टाइट कंटेनर में संग्रहित किया जाना चाहिए। केसर गर्मी के प्रति कुछ अधिक प्रतिरोधी है।

इस खोज का श्रेय भारत के गुजरात राज्य के राजकोट जिले के मूल निवासी श्री चिंतन हरेशभाई वरसानी को जाता है

सन्दर्भ

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इन सभी केसर प्रजातियों के शोधकर्ता श्री चिंतन हरेशभाई वरसाणी हैं, जो भारत के गुजरात राज्य के राजकोट जिले के मूल निवासी हैं। इसने पूरी दुनिया के लिए इनडोर केसर की खेती का आविष्कार किया है। यदि आप केसर की खेती के बारे में जानकारी चाहते हैं, तो यह मुफ़्त में जानकारी प्रदान करता है। जानकारी प्राप्त करने के लिए उनका मेल आईडी और मोबाइल नंबर नीचे दिया गया है।

मो. +91 7046434340

पालतू केसर क्रोकस, क्रोकस सैटिवस, एक शरद ऋतु में फूलने वाला बारहमासी पौधा है जो जंगल में अज्ञात है। यह संभवतः पूर्वी भूमध्यसागरीय शरद ऋतु में फूलने वाले क्रोकस कार्टराइटियनस से उतरता है जिसे "जंगली केसर" [12] के रूप में भी जाना जाता है और यह मुख्य भूमि ग्रीस, यूबोआ, क्रेते, स्काईरोस और साइक्लेड्स के कुछ द्वीपों का मूल निवासी है। [13] समान प्रजातियाँ सी. थॉमसी और सी. पल्लासी को अन्य संभावित पूर्वजों के रूप में माना जाता था। [14] [15] बीज उत्पादन में असमर्थ आनुवंशिक रूप से मोनोमॉर्फिक क्लोन के रूप में, इसे धीरे-धीरे यूरेशिया के अधिकांश हिस्सों में मनुष्यों द्वारा प्रचारित किया गया था।[१६] इस हालिया शोध से पहले केसर के लिए विभिन्न उत्पत्ति का सुझाव दिया गया था, जिसमें ईरान,[१७] ग्रीस,[१८] मेसोपोटामिया[१७] और कश्मीर शामिल हैं।[१९] यह एक बाँझ ट्रिपलोइड रूप है, जिसका अर्थ है कि गुणसूत्रों के तीन समरूप सेट प्रत्येक नमूने के आनुवंशिक पूरक को बनाते हैं; सी. सैटिवस प्रति सेट आठ गुणसूत्र निकायों को धारण करता है, जो कुल मिलाकर 24 होते हैं।[२०] बाँझ होने के कारण, सी. सैटिवस के बैंगनी फूल व्यवहार्य बीज पैदा करने में विफल रहते हैं; प्रजनन मानव सहायता पर टिका होता है: कॉर्म के समूह, भूमिगत, बल्ब जैसे, स्टार्च-भंडारण अंगों को खोदा जाना चाहिए, विभाजित किया जाना चाहिए और फिर से लगाया जाना चाहिए। एक कॉर्म एक मौसम तक जीवित रहता है, वनस्पति विभाजन के माध्यम से दस "कॉर्मलेट" तक पैदा करता है जो अगले मौसम में नए पौधों में विकसित हो सकते हैं।[21] कॉम्पैक्ट कॉर्म छोटे, भूरे रंग के गोले होते हैं जो व्यास में 5 सेमी (2 इंच) तक बड़े हो सकते हैं, एक सपाट आधार होता है, और समानांतर तंतुओं की घनी चटाई में लिपटा होता है; इस कोट को "कॉर्म ट्यूनिक" कहा जाता है। कॉर्म में ऊर्ध्वाधर रेशे भी होते हैं, जो पतले और जाल जैसे होते हैं, जो पौधे की गर्दन से 5 सेमी (2 इंच) ऊपर तक बढ़ते हैं।[20] पौधे में 5-11 सफेद और गैर-प्रकाश संश्लेषक पत्तियां उगती हैं जिन्हें कैटाफिल्स के रूप में जाना जाता है। ये झिल्ली जैसी संरचनाएं 5 से 11 असली पत्तियों को कली के रूप में ढकती हैं और उनकी रक्षा करती हैं और क्रोकस फूल पर विकसित होती हैं। उत्तरार्द्ध पतले, सीधे और ब्लेड की तरह हरे पत्ते होते हैं, जो व्यास में 1-3 मिमी (1⁄32-1⁄8 इंच) होते हैं, जो या तो फूलों के खुलने के बाद फैलते हैं ("हिस्टेरेन्थस") या उनके खिलने के साथ-साथ ऐसा करते हैं ("सिनेन्थस")। सी. सैटिवस कैटाफिल्स के बारे में कुछ लोगों का संदेह है कि जब पौधे को बढ़ते मौसम में अपेक्षाकृत जल्दी सिंचित किया जाता है, तो यह खिलने से पहले प्रकट होता है। इसके पुष्प अक्ष, या फूल-असर संरचनाएं, ब्रैक्टिओल्स या विशेष पत्तियों को धारण करती हैं, जो फूल के तने से निकलती हैं; बाद वाले को पेडीकेल्स के रूप में जाना जाता है।[20] वसंत में पुष्पन के बाद, पौधा अपने असली पत्ते भेजता है, प्रत्येक की लंबाई 40 सेमी (16 इंच) तक होती है वे बकाइन के हल्के पेस्टल शेड से लेकर गहरे और अधिक धारीदार बैंगनी रंग तक होते हैं।[22] फूलों में एक मीठी, शहद जैसी खुशबू होती है। फूल आने पर, पौधे 20-30 सेमी (8-12 इंच) ऊंचे होते हैं और चार फूल तक लगते हैं। प्रत्येक फूल से 25-30 मिमी (1-1+3⁄16 इंच) लंबाई की तीन-पंख वाली शैली निकलती है। प्रत्येक शूल एक ज्वलंत लाल रंग के कलंक के साथ समाप्त होता है, जो एक कार्पेल का दूरस्थ छोर होता है।[21][20][1]

बाहरी कड़ियाँ

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  1. "Asli Kesar - Unlock the Secret of Saffron". aslikesar.com (अंग्रेज़ी में). 2024-08-12. अभिगमन तिथि 2024-08-15.
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